ऐतिहासिक 12 वीं शताब्दी में निर्मित माला देवी की प्रतिमा दिन में तीन बार अपने आप रंग बदलती है। इसका रहस्य आज तक सुलझ नहीं पाया। पुरातत्व विद इसे प्रतिमा के पत्थर की विशेषता से जोड़कर देखते हैं, वहीं श्रद्धालु इसे देवी माँ का प्रताप और चमत्कार मानते हैं। इतिहासकार मानते है ।गोंड शासकों ने मालादेवी को अपनी कुलदेवी के रूप में माना। मान्यता है कि गोंडवाना साम्राज्य की साम्राज्ञी रानी दुर्गावती इस मंदिर में पूजन करने आती थीं। रानी के वंशज अब भी नवरात्र पर पूजन करने मंडला से यहां आते हैं।
जबलपुर गढ़ा बाजार से धन्वन्तरी नगर जाने वाले मार्ग पर पुरवा चुंगी चौकी, पुरवा झंडा चौक के समीप बखरी क्षेत्र में यह माता का यह मंदिर स्थित है।
वैसे तो यह प्रतिमा पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित है, लेकिन सभी कुछ कागजों पर चल रहा है, इसकी देख रेख कोई नहीं करता।
इतिहासविद बताते हैं कि माला देवी गोंड राजाओं की कुलदेवी हैं।मदनमहल किले में प्रवास के दौरान रानी दुर्गावती स्वयं रोज यहां पूजन करने के लिए आती थीं। माला देवी को महालक्ष्मी देवी का ही एक रूप माना गया है। मान्यता है कि मालादेवी के पूजन और आराधना से सुख, समृद्धि और धन की प्राप्ति होती है। रानी दुर्गावती भी इस सत्य को जानती थीं। उस दौर में भी नवरात्र पर यहां विशेष पूजन होता था।
रहस्य बना रंग बदलना-
मूर्ति के रंग बदलने का रहस्य आज भी पहेली बना हुआ है। दूर दूर से लोग इस प्रतिमा को देखने के लिए आते हैं। स्थानीय व्यक्ति बताते हैं कि कि सूर्योदय के समय माला देवी की प्रतिमा में लाल रंग की आभा दिखाई देती है। दोपहर में मूर्ति का रंग थोड़ा श्यामल हो जाता है। शाम को प्रतिमा पीली नजर आती है। पुरातत्वविदों का मानना है कि प्रतिमा एक विशेष प्रकार के पत्थर से बनी है। पत्थर के गुण की वजह से ही रंग बदला दिखाई देता है। इस पर रिसर्च भी चल रही है, लेकिन इसमें अभी कोई सफलता प्राप्त नहीं हुई है ।
यहां सूरजताल के समीप गोंडवाना काल की और भी धरोहरें मौजूद हैं। इनका अस्तित्व भी संकट में है।क्षेत्रीय निवासियों का कहना है कि पुरातत्व विभाग के अधिकारियों व जनप्रतिनिधियों को इन धरोहरों के संरक्षण की दिशा में सक्रिय कदम उठान चाहिए।
चोरी हो गई थी प्रतिमा-
प्रतिमा के पुरातात्विक महत्व को देखते हुए मूर्ति तस्कर गिरोह की नज़रें इस मूर्ति पर थीं। लगभग 25 वर्ष पूर्व यह मूर्ति चोरी हो गई थी। तस्कर उक्त मूर्ति को मुंबई के जरिए विदेश ले जाकर बेचने की फिराक में थे। इसके पूर्व ही क्षेत्रवासियों व तत्कालीन पुलिस अधिकारियों के अथक प्रयास से मूर्ति बरामद कर ली गई । दोबारा इसे पूरे विधिविधान से स्थापित किया गया।
यह मन्दिर इस बात का प्रमाणिक साक्ष्य हैं कि गोंड राजवंश हिन्दू सनातन संस्कृति का संरक्षक था किन्तु आज भी कुछ असामाजिक संगठन द्वारा इस प्रमाणिक इतिहास को नकार कर निरंतर इस बात का भ्रामक विमर्श गढ़ रहे है की जनजाति समुदाय का कोई धर्म नही है वह हिन्दू नहीं है इन सगठनों के लोगो को इस गोंडवाना कालीन इस एतिहासिक धरोहर के संरक्षण के लिए आगे आना चाहिए और राजा शंकर शाह के बलिदान से भी प्रेरणा लेना चाहिए आपका
प्रकाश उईके पूर्व न्यायधीश राष्ट्रीय अनूसूचित जनजाति आयोग नई दिल्ली
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